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|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।
मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!
आया था विद्या-संचय को, किन्तु , व्यर्थ बदनाम हुआ।
महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।
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