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|संग्रह=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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अब जाऊँगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर?
 
 
पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा?
 
 
अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं?
 
 
इन्हीं पाद-पद्‌मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।'
 
 
निश्चल सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है?
 
 
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