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|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
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कार्ल मार्क्स
''‘नीस्त पैग़म्बर व लेकिन दर बग़ल दारद किताब’''<ref>वह पैग़म्बर नहीं लेकिन साहिब-ए-किताब है</ref>
-जामी

वह आग मार्क्स के सीने में जो हुई रौशन
वह आग सीन-ए-इन्साँ में आफ़ताब है आज
यह आग जुम्बिशे-लब जुम्बिशे-क़लम भी बनी
हर एक हर्फ़ नये अह्द की किताब है आज
ज़मानागीरो-खुदआगाहो-सरकशो-बेबाक<ref>सार्वभौमिक, आत्मचेतस,स्वच्छन्द और निर्भीक</ref>
सुरूरे-नग़मा-ओ-सरमस्ती-ए-शबाब<ref>यौवन के आह्लाद का उन्माद</ref> है आज
हर एक आँख में रक़्साँ है कोई मंज़रे-नौ
हर एक दिल में कोई दिलनवाज़ ख़्वाब है आज
वह जलवः जिसकी तमन्ना भी चश्मे-आदम को
वह जलवः चश्मे-तमन्ना में बेनक़ाब है आज
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