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कवि: [[राम विलास शर्मा]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=राम विलास शर्मा]]|संग्रह= }}पूरी हुई कटाई, अब खलिहान में,
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~पीपल के नीचे है राशि सुची हुई,
वर्षा से धुल कर निखर उठा नीलादानों-नीलाभरी पकी बालों वाले बड़े
फिर हरे-हरे खेतों पूलों पर छाया आसमान,पूलों के लगे अरम्भ हैं ।
उजली कुँआर की धूप अकेली पड़ी हार बिगही-बरहे दीख पड़े अब खेत में,
लौटे इस बेला सब अपने घर किसान छोटे-छोटे ठूँठ-ठूँठ ही रह गये
पागुर करती छाहीं अभी दुपहरी मेंपर, कुछ गम्भीर अध-खुली आँखों से,जब आकाश को
बैठी गायें करती विचारचाँदी का सा पात किये, है तप रहा,
सूनेपन का मधुछोटा-गीत आम की डाली मेंसा सूरज सिर पर बैसाख का,
गाती जातीं भिन्न कर ममाखियाँ लगातार ।काले धब्बों-से बिखरे वे खेत में
भरे रहे मकाई ज्वार बाजरे के दानेफटे अँगोछों में, बच्चे भी साथ ले,
चुगती चिड़ियाँ पेड़ों पर बैठीं झूल-झूलध्यान लगा सीला चमार हैं बीनते,
पीले कनेर के फूल सुनहले फूले पीलेखेत कटाई की मजदूरी,इन्हीं ने
लाल-लाल झाड़ी कनेर की, लाल फूल जोता बोया सींचा भी था खेत को । बिकसी फूटें, पकती कचेलियाँ बेलों में, ढो ले आती ठंडी बयार सोंधी सुगन्ध, अन्तस्तल में फिर पैठ खोलती मनोभवन के, वर्ष-वर्ष से सुधि के भूले द्वार बन्द । तब वर्षों के उस पार दीखता, खेल रहा वह, खेल-खेल में मिटा चुका है जिसे काल, बीते वर्षों का मैं, जिसको है ढँके हुए गाढ़े वर्षों की छायाओं का तन्तु-जाल । देखती उसे तब अपलक आँखें, रह जाती