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09:08, 27 मई 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
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'''ग़ज़ल४'''
कोई हो मौसम थम नहीं सकता रक़्से-जुनूँ दीवानों का
ज़ंज़ीरों की झनकारों में शोरे-बहाराँ बाक़ी है
इश्क़ के मुज़िम ने ये मंज़र औ़ज़े-दार से देखा है
ज़िन्दाँ-ज़िन्दाँ<ref>कारागार</ref>, महबस-महबस<ref>इस शब्द का प्रयोग ‘ज़िन्दाँ’ के अर्थ में ही किया गया है</ref>, हल्क़ःए-याराँ बाक़ी है
बर्गे-ज़र्द के साये में भी जूए-तरन्नुम जारी है
ये तो शिकस्ते-फ़स्ले-खि़ज़ाँ है, सौते-हज़ाराँ बाक़ी है
मुह्तसिबों<ref>धर्माधिकारी</ref> की ख़ुश्क़ी-ए-दिल पर एक ज़माना हँसता है
तरह है दामन और वक़ारे-बादा-गुसाराँ<ref>मदिरापान करनेवालों की गरिमा</ref> बाक़ी है
फूल-से चेहरे, चाँद-से मुखड़े नज़रों से रूपोश हुए
आरिज़े-दिल पर रंगे-हिना है, दस्ते-निगाराँ बाक़ी है
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