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'''मैं चल तो दूँ'''
 
 
मैं चल तो दूँ
पर
माँ की तुलसीमाला
पिरोनी बची है
::::यों छोड़ जाना ::::संभव नहीं मेरे लिए
और
अनुमति तो ली ही नहीं - पिता से,
::::दुखते घुटनों चल ::::घाट तक कैसे जाएंगे--वे?
मैं चल तो दूँ
पर अपनी
इस अनिच्छा का क्या करूँ
::::कि सूर्यास्त तक माप कर आई ::::जमीन की अंधी दौड़ में ::::नहीं जाना मुझे?
दोस्त! मेरी कविता के पन्ने
उतने - भर में फैलने दो
हाथ बढा़कर नाप लूँ जितनी,
::::यही, कोई दो गज़!!
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