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{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
}}
<poem>
'''नागयज्ञ'''

जो हमारी
धड़कनों की
गति समझने में
रहे असफल
उन्हें क्या ज्ञात है -
स्फोट में ही
प्राण अपने
जागते हैं।

दहकते चोले बसंती
हैं नहीं वैराग्य-भर को,
तक्षकों के प्राण लेने को लपकती
ये भभकती
अग्नि की झर-झर शिखाएँ हैं,
हमारी देह-मन में
दहकती हैं
श्वास पीकर
और भी फुंकारती हैं।

अब कपालों का करेंगे
खूब मोचन
वेदियाँ हुँकारती हैं।
</poem>