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बदरंग / कविता वाचक्नवी

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'''बदरंग'''


कितने बूटे
बेल, बूटियाँ
हरे, गुलाबी
काढ़ो इस पर,
सखे!
दूधिया चादर है यह
धूल, धूप, धक्कड़ खाई-सी
::: और नियति
::: बदरंग हुई है।
</poem>