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16:53, 19 जून 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
}}
<poem>
'''बीच अधर में'''
खिड़की
पट
द्वार
रोशनदान
झरोखे
::: खुल गए समझते हो?
कौन जाने?
पहले भीतरी हवा
बाहर जाएगी
::: या
बाहर की भीतर आएगी?
धूप आएगी
या
शीत जाएगा?
हवा........?
::: कुछ उड़ा न ले जाए,
::: यादों की गंध
::: [जैसी भी सही]
::: रच-बस गई है
::: नहीं छूटती।
::: डर और भी हैं
::: हवा से,
::: कहीं उड़ाने लगी तो
::: धूल ही धूल भर जाएगी
::: भीतर तहाई
::: गर्द की परतों की।
धूप.......?
::: डर लगता है
::: चौंध से
::: तपन से।
::: पाना / देखना
::: चाहा तो था आकाश
::: पूरा नीला, खरा नीला
::: थोड़ी मही
::: गहरी हरी, सारी हरी।
::: किंतु
::: खिड़की
::: पट
::: द्वार रोशनदान
::: झरोखे खोलने(?) से भी
::: धरती की हरियावल नहीं दीखती
::: पसटने को टुकडा भर नहीं।
आकाश........?
::: दीखता तो है
::: पर
::: टुकड़ा भर,
::: बँटा हुआ
::: आत्मा के जाने कितने टुकड़ों में।
:::आकाश! शून्य!
::: क्यों तुम शून्य के भी खंड हो सकते हो
::: परमाणू में बँट सकते हो?
अब?
::: अंधेरा और ठहराव
::: तथा / या
::: (शून्य)
::: प्रकाश और गति
::::: और मैं
::: बराबर
::: त्रिशंकु.....?
</poem>