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17:00, 19 जून 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
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'''मा निषाद....'''
और उस रात,
और उस रात के बाद,
फिर उसके भी बाद,
जाने कितनी रातें
जाने कितनी नींदें
जाने कितने स्वप्न
चीखों से तोड़े हमने।
::: एक उलटा लटका चमगादड़
::: छत के कुंडे में
::: हर बार दीखता
::: हर जाग में
::: हर स्वप्न में
::: हर रात में
::: और
::: मैंने
::: नोंच दिए क्रौंच सभी
::: सपनों के।
::: आँख खुली,
::: पंख
::: सब ओर छितरे थे।
</poem>