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{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
}}
<poem>
'''नैनम्‌ दहति पावकः'''


चकमक पाषाण!
अँधेरी रात के उजला माँगने पर
तुम्हारी चिंगारियों से फूटा प्रकाश
मेरे घर कि आग
नहीं हुआ वह,
न मेरा घर था वहाँ
न तुम्हारी आग को बँधना स्वीकार
सार्वजनीन है - आग तुम्हारी
कुछ आते-जातों के लिए।

बचा कर रखना
थोडी़ आग
कि आग देने मुझे
कोई नहीं आएगा जब
तब दे सको
एक चिंगारी - भर
मेरी पिपासा के पुनरागमन के लिए।

</poem>