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{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
}}
<poem>
'''तत्र..........गंधवती पृथिवी'''

बरसों पहले
वैशेषिक, न्याय, सांख्य के
सूत्रों में बिंधे-बिंधाए
पृथ्वी का लक्षण पढ़ा -
"......गंधवती पृथिवी"

जी भर गंध ढूँढ़ती भटकती
सावन के छींटों में
कच्ची धरती की खोज में।
न धरती मिली, न गंध
और न ‘दर्शनकार’ के अर्थ की मीमांसा।
पृथ्वी धुरी पर घूमती
रात भर
दिवस भर,
संसार ने घोटमघोट पढ़ाया -
तू पृथ्वी बन
खूब सह
खूब झेल
खूब उपजाना
कुचली भले जाना।

::: गंध दाबे-दबाए
::: हो गई एक पृथ्वी-मिट्टी।
::: उसने नदियाँ बहाईं
::: प्रजा-पोषण किया
::: पेड़ और फूल भी उगाए।
::: जल और ज्वालामुखी समेटकर
::: खोजती रही गंधवती
::: अपनी गंध
::: दो फुहारों की आशा में लुटाती रही मिट्टी
::: -----सारे आस्वाद
::: सूखा पड़ा----मिट्टी हो गई पत्थर
::: अकाल पडे़---भूमि में पड़ीं दरारें
::: उगने लगे कैक्टस।
::: जाने युगों पूर्व की कौन-सी फुहार
::: फिर चेताती - तत्र..गन्धवती पृथिवी।

::: पर फिर

::: मैंने छोड दिया
::: ‘दर्शनकार’ के अभिप्राय का
::: तत्व खोजना
::: फुहारों से स्नात पृथ्वी की गंध ढूँढ़ने का अभियान।

पत्थर और कण-कण होती पृथ्वी के
मुरझाए आँचल पर
न आकाश ने मेह सीचे
न गंध ने नथुने महकाए।

ओ दर्शनकार!
पृथ्वी की परिभाषा
मेट दो,
कहीं आकाश में बादल नहीं घुमड़ते
किसी आकाश में जल के छींटे अवशिष्ट नहीं।

::: पाखंड हैं फुहारें
::: और
::: ‘एलर्जी’ है नीलांचल को
::: गंध से,
::: इसीलिए
::: वह नहीं बरसा सकता
::: नेह का मेह।
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