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09:26, 28 जून 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
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'''कालपुरुष !'''
कालपुरुष !
तुम्हारे आँगन में
मेरी हँसी पर
जिस दिन
लगने लगे
प्रश्नचिह्न
तुमने कतूरे की तरह
कर दिया-पराई।
::मुझे विदा कर
::कच्चा दूध पीने वाली
::भाभियों के सौभाग्य
::और डोली को
::हाथ से
::आगे सरकाने वाले
::भाई बन, तुमने
::मान लिया बेगानी -
::मैं मिट्टी की मूरत बना
::कंधे लग
::भीगती, भिगोती रही जड़ कंधे
::थक-हार गई
आत्मीय प्रियतम बन
जानबूझ कर
सदा की तरह
तुम देर से आए
मेरे पराई
और परकीया होने के बाद।
::फिर कालपुरुष!
::सारा देय देकर भी तुम्हें
::मैं रही - पराई ।
::मैंने अपनी साँसें
::कामनाएँ, अभिलाषाएँ, चाहतें
::अपने प्राण, निवेदन, प्रणय
::अपना मन, क्षण, रोम-रोम,
::चीख पुकार, चिल्लाहटें,
::आँसू - बूँद -बूँद
::न्यौछार दिया
::और तुम!
::अपने पुरुष - बाने में
::सदा - सदा
::पराए रहे।
::कालपुरुष ! सच में तुम
::काल हो
::पुरुष हो!
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