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{{KKRachna
|रचनाकार=शाद अज़ीमाबादी
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वो खु़शनिगाह नहीं, जिसमें ख़ुदनुमाईं नहीं।
यह चश्मदीदा हैं, बातें सुनी-सुनाई नहीं॥

ख़याल से है कहीं दूर आस्तानए-दोस्त!
वहाँ का शौक़ है दिल को, जहाँ रसाई नहीं॥

मरीज़े-हिज्र को लाज़िम है तेरे ज़ुल्म की याद।
दवा यही है मगर हमने आज़माई नहीं॥

वोह आशिक़ों से है नाराज़ क्यों, खु़दा जाने?
वफ़ूरे-शौक़ का होना कोई बुराई नहीं॥

ज़बाँ पै ज़िक्र मगर दिल में वसवसा ऐ ‘शाद’।
ख़ता मुआफ़ यह धोका है पारसाई नहीं॥
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