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|रचनाकार= अमजद हैदराबादी
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हर ज़र्रेपै फ़ज़ले-किब्रिया<ref>ईश्वरीय कृपा</ref> होता है।
 
इक चश्मे-ज़दन में<ref>पलक मारते</ref> क्या से क्या होता है॥
 
असनाम दबी ज़बाँ से यह कहते हैं--
 
"वो चाहे तो पत्थर भी खु़दा होता है॥
 
 
हर गाम पै चकरा के गिरा जाता हूँ।
 
नक़्शे-कफ़े-पा बनके मिटा जाता हूँ॥
 
तू भी तो सम्भाल मेरे देनेवाले!
 
मैं बारे-अमानत में दबा जाता हूँ॥
 
 
इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है।
 
आवाज़-शिकस्ता दिल में इक राग भी है॥
 
बेकार नहीं बना है, इक तिनका भी।
 खामोश ख़ामोश दियासलाई में इक आग भी है॥   
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