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क्या बोलने के योग्य कहती हुई बहु भाँति यों ही भारती करुणामयी,<br>फिर भी अब मैं नहीं लेखी गई?मूर्छित अहो वह दू:खिनी विधवा नई,<br>ऐसी कुछ देर को फिर शोक उसका सो गया मानो वहाँ,<br>हत्चेत होना भी विपद में लाभदायी है महा||<br>उस समय ही कृष्णा, सुभद्रा आदि पाण्डव-नारियाँ,<br>मनो असुर-गन-पीडिता सुरलोक की सुकुमारियाँ,<br>करती हुईं बहु भाँति क्रंदन आ गईं सहसा वहाँ,<br>प्रत्यक्ष ही लक्षित हुआ तब दू:ख दुस्सह-सा वहाँ|<br>विचलित पहले तो देखा था कभी प्रतिकूलता देखी गई!जिनको किसी ने लोक में,<br>वे प्रणयनृप युधिष्ठिर भी स्वयं रोने लगे इस शोक में|<br>गाते हुए अभिमन्यु के गुण भाइयों के संग में,<br>होने लगे वे मग्न-सम्बन्धी तुम्हारे प्रण अनेक नएसे आपत्ति-नएसिन्धु-तरंग में||<br>"इस अति विनश्वर-विश्व में दुःख-शोक कहते हैं किसे?<br>दुःख भोगकर भी बहुत हमने आज जाना है इसे,<br>हे प्राणवल्लभनिश्चय हमें जीवन हमारा आज भारी हो गया, <br>संसार का सब सुख हमारा आज हा! सहसा समस्त कहाँ गए?खो गया|<br>है यादहा! क्या करें? उस दिन जो गिरा तुमने कही थी मधुमयीकैसे रहे? अब तो रहा जाता नहीं,<br>जब नेत्र कौतुक से तुम्हारे मूँदकर मैं रह गई हा! क्या कहें? किससे कहें? कुछ भी कहा जाता नहीं|<br>'यह पाणिक्योंकर सहें इस शोक को? या तो सहा जाता नहीं;<br>हे देव, इस दुःख-पद्म स्पर्श' मुझसे छिप सिन्धु में अब तो बहा जाता नहीं सकता कहीं||<br>जिस राज्य के हित शत्रुओं से युद्ध है यह हो रहा,<br>फिर उस राज्य को अब इस समय क्या नाथ मेरे हाथ वे भुवन में कौन भोगेगा अहा!<br>हे वत्सवर अभिमयु! वह तो था तुम्हारे ही हैं नहीं?लिए,<br>एकांत पर हाय! उसकी प्राप्ति के ही समय में हँसते हुए सुंदर रदों की पाँति सेतुम चल दिए!<br><br> जितना हमारे चित्त को आनंद था तुमने दिया,<br>धर चिबुक मम रूचि पूछते थे नित्य तुम बहु भाँति हा! अधिक उससे भी उसे अब शोक से |व्याकुल किया|<br>वह छवि तुम्हारी उस समय की याद आते ही वहींहे वत्स बोलो तो ज़रा,सम्बन्ध तोड़ कहाँ चले?<br>इस शोचनीय प्रसंग में तुम संग छोड़ कहाँ चले?<br>सुकुमार तुमको जानकर भी युद्ध में जाने दिया,<br>फल योग्य ही हे आर्यपुत्रपुत्र! विदीर्ण होता चित्त जाने क्यों उसका शीघ्र हमने पा लिया||<br>परिणाम को सोच बिना जो लोग करते काम हैं;<br>वे दुःख में पड़कर कभी पाते नहीं विश्राम हैं||<br>परिणय-समय मण्डप तले सम्बन्ध दृढ़ता-हित-अहातुमको बिना देखे अहो!अब धैर्य हम कैसे धरें?<br>ध्रुव देखने को वचन मुझसे नाथकुछ जान पड़ता है नहीं हे वत्स! तुमने था कहा |अब हम क्या करें?<br>पर विपुल व्रीडा-वश न उसका देखना मैं कह सकीहै विरह यह दुस्सह तुम्हारा हम इसे कैसे सहें?<br>संगति हमारी क्या इसी अर्जुन, सुभद्रा, द्रौपदी से ध्रुव न हाहाय! हा! रह सकीअब हम क्या कहें?"<br>बहु भाँति सुनकर सु-प्रशंसा और उसमें मन दिए -हैं ध्यान भी जिनका भयंकर जो न जा सकते कहे,<br>सुरपुर गए हो नाथयद्यपि दृढ़-व्रत पाण्डवों ने थे अनेकों दुःख सहे, क्या तुम अप्सराओं के लिए?<br>पर जान पड़ती है मुझे यह बात मन में भ्रमहो गए वे हीन-भरीसे इस दुःख के सम्मुख सभी,<br>मेरे समान अनुभव बिना जानी मानते थे तुम किसी को सुंदरी जाती बात कोई भी कभी||<br>हाँ अप्सराएँ आप तुम पर मर रही होंगी यों जान व्याकुल पाण्डवों को व्यास मुनि आए वहाँ-<br>कहने लगे इस भाँति उनसे वचन मन भाये वहाँ -<br>" हे धर्मराज! अधीर मत हो, योग्य यह तुमको नहीं,<br>समता तुम्हारे रूप की त्रैलोक्य में रखी कहाँकहते भले क्या विधि-नियम पर मोह ज्ञानीजन कहीं?"<br>पर प्राप्ति यों बादरायण के वचन सुन, देखकर उनको तथा,<br>कहने लगे उनसे युधिष्ठिर और भी उनकी वहाँ भाती नहीं होगी तुम्हें?पाकर व्यथा -<br>क्या याद हम सबकी वहाँ आती नहीं होगी तुम्हें"धीरज धरूँ हे तात कैसे?जल रहा मेरा हिया,<br>क्या हो गया या हाय! सहसा दैव ने यह क्या किया?<br>
यह भुवन ही इन्द्र कानन कर्म वीरों के लिए,<br>
कहते सदा तुम तो यही थे - धन्य हूँ मैं हे प्रिये!<br>
यह देव दुर्लभ, प्रेममय मुझको मिला प्रिय वर्ग है,<br>
मेरे लिए संसार ही नंदन-विपिन है, स्वर्ग है ||<br>
जो भूरि-भाग भरी विदित थी निरुपमेय सुहागिनी,<br>
हे हृदय्वल्लभ! हूँ वही मैं महा हतभागिनी!<br>
जो साथिनी होकर तुम्हारी थी अतीव सनाथिनी,<br>
है अब उसी मुझ-सी जगत में और कौन अनाथिनी?<br>
हा! जब कभी अवलोक कुछ भी मौन धारे मान से,<br>
प्रियतम! मनाते थे जिसे तुम विविध वाक्य-विधान से |<br>
विह्वल उसी मुझको अहा! अब देखते तक हो नहीं,<br>
यों सर्वदा ही भूल जाना है सुना न गया कहीं ||<br>
मैं हूँ वही जिसका हुआ था ग्रंथि-बंधन साथ में,<br>
मैं हूँ वही जिसका लिया था हाथ अपने हाथ में;<br>
मैं हूँ वही जिसको किया था विधि-विहित अर्द्धांगिनी,<br>
भूलो न मुझको नाथ, हूँ मैं अनुचरी चिरसंगिनी ||<br>
जो अन्गारागांकित रुचिर सित-सेज पर थी सोहती,<br>
शोभा अपार निहार जिसको मैं मुदित हो मोहती,<br>
तव मूर्ती क्षत-विक्षत वही निश्चेष्ट अब भू पर पड़ी!<br>
बैठी तथा मैं देखती हूँ हाय री छाती कड़ी!<br>
हे जीवितेश! उठो, उठो, यह नींद कैसी घोर है,<br>
है क्या तुम्हारे योग्य, यह तो भूमि-सेज कठोर है!<br>
रख शीश मेरे अंक में जो लेटते थे प्रीति से,<br>
यह लेटना अति भिन्न है उस लेटने की रीति से ||<br><br>
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