भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
कहने लगे उनसे युधिष्ठिर और भी पाकर व्यथा -<br>
"धीरज धरूँ हे तात कैसे? जल रहा मेरा हिया,<br>
क्या हो गया यह हाय! सहसा दैव ने यह क्या किया?<br><br>
जो सर्वदा ही शून्य लगाती आज हम सबको धरा,<br>
जो नाथ-हीन अनाथ जग में हो गई है उत्तरा|<br>
हूँ हेतु इसका मुख्य मैं ही हा! मुझे धिक्कार है,<br>
मत धर्मराज कहो मुझे, यह क्रूर-जन भू-भार है||<br>
है पुत्र दुर्लभ सर्वथा अभिमन्यु-सा संसार में,<br>
थे सर्व गुण उस धर्मधारी धीर-वीर कुमार में|<br>
वह बाल होकर भी मृदुल, अति प्रौढ़ था निज काम में,<br>
बातें अलौकिक थीं सभी उस दिव्य शोभा-धाम में||<br>
क्या रूप में, क्या शक्ति में, क्या बुद्धि में, क्या ज्ञान में,<br>
गुणवान वैसा अन्य जन आता नहीं है ध्यान में|<br>
पर हाय! केवल रह गई है अब यहाँ उसकी कथा,<br>
धिक्कार है संसार की निस्सारता को सर्वथा||<br>
प्रति दिवस जो इस समय आकर मोदयुत संग्राम से,<br>
करता हृदय मेरा मुदित था भक्ति-युक्त प्रणाम से|<br>
हा! आज वह अभिमन्यु मेरा मृतक भू पर है पड़ा,<br>
होगा कहो मेरे लिए क्या कष्ट अब इससे बड़ा?<br>
करने पड़ेंगे यदपि अब भी काम सब जग में हमें,<br>
चलना पड़ेगा यदपि अब भी विश्व के मग में हमें,<br>
सच जानिए पर अब न होगा हृदय लीन उमंग में,<br>
सुख की सभी बातें गईं सौभद्र के ही संग में||<br>
उस के बिना अब तो हमें कुछ भी सुहाता है नहीं,<br>
हा! क्या करें हा हृदय दुःख से शान्ति पाता है नहीं|<br>
था लोक आलोकित उसी से, अब अँधेरा है हमें,<br>
किस दोष से दुर्दैव ने इस भाँति घेरा है हमें||<br><br>
{{KKPageNavigation