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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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प्रस्तुत संकलन का यह दूसरा संस्करण है। <br>
कविताओं के किसी भी संग्रह का पुनर्मुद्रण सुखद विस्मय का कारण होता है, और कवि के लिए तो और भी अधिक। मेरी तो यह धारणा थी कि '''कितनी नावों में कितनी बार''' के लोकप्रिय होने की संभावना बहुत कम है, यद्यपि उस में कुछ कविताएँ ऐसी अवश्य हैं जिन्हें मैं अपनी जीवन-दृष्टि के मूल स्वर के अत्यंत निकट पाता हूँ। इस बात को यों भी कहा जा सकता है—और कदाचित् इसी तरह कहना ज़्यादा सही होगा—कि उस जीवन-दृष्टि के ही लोकप्रिय होने की संभावना बहुत कम है! यह इसलिए नहीं कि उस में सच्चाई या गहराई की कमी है, बल्कि इसलिए कि हमारे समाज कि अद्यतन प्रवृत्तियाँ उन मूल्यों को महत्त्व नहीं देती जो इस दृष्टि का आधार हैं। जो मूल्य दृष्टि भौतिक जीवन की बाहरी सुख-सुविधा और सुरक्षा को गौण स्थान देती हुई लगातार एक सूक्ष्मतर कसौटी पर बल देना आवश्यक समझे, जो इससे भी न घबराए कि जीवन की प्रवृत्तियों और महत्त्वाकांक्षाओं के प्रति ऐस परीक्षणभाव सफलता की खोज को ही जोखम में डाल सकता है, वह 'लोकप्रिय' नहीं हो सकती, भले ही थोड़े से लोग उसे महत्त्व देते रहें, बल्कि उससे प्रेरणा भी पाते रहें। <br> <br>