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रीति काल

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'''रीति काल सन 1650 से 1850 तक'''
इस युग को रीतिकाल इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसमें काव्य-रीति पर अधिक विचार हुआ है। इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में श्रृंगार की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया [[कवित्त]], [[सवैये]] और [[दोहे]] इस युग में लिखे गए।
कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई।
रीतिकाल के अधिकांश कवि दरबारी थे। [[केशवदास]] (ओरछा), प्रताप सिंह(चरखारी), [[बिहारी]](जयपुर, आमेर), [[मतिराम]] (बूँदी), [[भूषण]] (पन्ना), [[चिंतामणि]](नागपुर), [[देव]](पिहानी), भिखारीदास(प्रतापगढ़-अवध), रघुनाथ(काशी), बेनी (किशनगढ़), गंग(दिल्ली), टीकाराम(बड़ौदा), [[ग्वाल]](पंजाब), चन्द्रशेखर बाजपेई(पटियाला), हरनाम(कपूरथला), कुलपति मिश्र (जयपुर), नेवाज(पन्ना), सुरति मिश्र(दिल्ली), कवीन्द्र उदयनाथ(अमेठी), ऋषिनाथ(काशी), रतन कवि(श्रीनगर-गढ़वाल), बेनी बन्दीजन (अवध), बेनी प्रवीन (लखनऊ), ब्रह्मदत्त (काशी), ठाकुर बुन्देलखण्डी (जैतपुर), बोधा (पन्ना), गुमान मिश्र (पिहानी) आदि और अनेक कवि तो राजा ही थे, जैसे- महाराज जसवन्त सिंह (तिर्वा), भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि (दतिया के जमींदार), महाराज विश्वनाथ, द्विजदेव (महाराज मानसिंह)। इतिहास साक्षी है कि अपने पराभव काल में भी यह युग वैभव विकास का था। मुगल दरबार के हरम में पाँच-पाँच हजार रूपसियाँ रहती थीं। मीना बाज़ार लगते थे, सुरा-सुन्दरी का उन्मुक्त व्यापार होता था। डॉ० नगेन्द्र लिखते हैं- "वासना का सागर ऐसे प्रबल वेग से उमड़ रहा था कि शुद्धिवाद सम्राट के सभी निषेध प्रयत्न उसमें बह गये। अमीर-उमराव ने उसके निषेध पत्रों को शराब की सुराही में...............गर्क कर दिया। ..............विलास के अन्य साधन भी प्रचुर मात्रा में थे।" [[पद्माकर]] ने एक ही छन्द में तत्कालीन दरबारों की रूपरेखा का अंकन कर दिया है-
गुलगुली गिल में गलीचा हैं, गुनीजन हैं,