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11:05, 29 जुलाई 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सीमाब अकबराबादी
|संग्रह=
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कुछ हाथ उठाके मांग न कुछ हाथ उठाके देख।
फिर अख़्तियार ख़ातिरे-बेमुद्दआके देख॥
तज़हीको-इल्तफ़ात में<ref>हँसी उडाने और महरबानी में</ref> रहने दे इम्तयाज़<ref>अंतर</ref>
यूँ मुस्करा न देख के, हाँ मुसकरा के देख॥
तू हुस्न की नज़र को समझता है बेपनाह।
अपनी निगाह को भी कभी आज़मा के देख॥
परदे तमाम उठाके न मायूसे-जलवा हो।
उठ और अपने दिल की भी चिलमन उठा के देख॥
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