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|रचनाकार=सीमाब अकबराबादी
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मनशाये-इलाही पै यक़ीं आ ही चला है।
ऐ चारागरो! ज़हमते-दरमाँ कोई दिन और॥



अपना सजदा खुद गराँ महसूस होता है मुझे।
जैसे पाय-नाज़पर इक बोझ सा रखता हूँ मैं॥




ज़मीनो-आसमाँ से तंग है तो छोड़ दे उनको।
मगर पहले नये पैदा ज़मीनो-आस्माँ कर ले॥

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