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{{KKRachna
|रचनाकार=बशीर बद्र
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चमक रही है परों में उडान की खुशबू
बुला रही है बहुत आसमान की खुशबू

भटक रही है पुरानी दुलाइयाँ ओढे
हवेलियों में मेरे खानदान की खुशबू

सुनाके कोई कहानी हमें सुलाती थी
दुआओं जैसी बड़े पानदान की खुशबू

दबा था कोई फूल मेज़ पोश के नीचे
गरज रही थी बहुत पेचवान की खुशबू

अजब वकार था सुनहरे बालों में
उदासियों की चमक जर्द लान की खुशबू

वो इत्रदान सा लहजा मेरे बुजुर्गों का
रची बसी हुई उर्दू जुबान की खुशबू

खुदा का शुक्र है मेरे जवान बेटे के
बदन से आने लगी है जाफरान की खुशबू

इमारतों की बुलंदी पे कोई मौसम क्या
कहाँ से आ गई कच्चे मकान की खुशबू

गुलों पे लिखती हुई ला-इलाहे-इल-लल्लाह
पहाडियों से उतरती अजान की खुशबू

</poem>
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