|संग्रह=दीपशिखा / महादेवी वर्मा
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दीप मेरे जल अकम्पित,
तड़ित, तम का विकल मन है,
भीति क्या नभ है व्यथा का
आंसुओं आँसुओं से सिक्त अंचल!
स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें,
मीड़, सब भू की शिरायें,
घर न खोये, लघु विहग भी,
स्निग्ध लौ की तूलिका से
आंक आँक सबकी छांह छाँह उज्ज्वल
हो लिये सब साथ अपने,