Changes

{{KKRachna
|रचनाकार=महादेवी वर्मा
|संग्रह=दीपशिखा / महादेवी वर्मा
}}
<poem>
प्राण हँस कर ले चला जब
चिर व्यथा का भार
'''काव्य संग्रह [[दीपशिखा / महादेवी वर्मा|दीपशिखा]] उभर आये सिन्धु उर मेंवीचियों के लेख,गिरि कपोलों पर न सूखीआँसुओं की रेखधूलि का नभ से'''<br><br>न रुक पाया कसक-व्यापार
प्राण हँस कर ले चला जब<br>शान्त दीपों में जगी नभचिर व्यथा का भारकी समाधि अनन्त,बन गये प्रहरी, पहनआलोक-तिमिर, दिगन्त!<br><br>किरण तारों पर हुए हिम-बिन्दु बन्दनवार।
उभर आये सिन्धु उर में<br>वीचियों स्वर्ण-शर से साध के लेखघन ने लिया उर बेध,<br>गिरि कपोलों पर न सूखी<br>स्वप्न-विहगों को हुआआँसुओं की रेख।<br>यह क्षितिज मूक निषेधधूलि क्षण चले करने क्षणों का नभ पुलक से न रुक पाया कसक-व्यापारश्रृंगार!<br><br>
शान्त दीपों में जगी नभ<br>शून्य के निश्वास ने दीकी समाधि अनन्ततूलिका सी फर,<br>बन गये प्रहरी, पहन<br>ज्वार शत शत रंग केआलोक-तिमिर, दिगन्तफैले धरा को घेर!<br>किरण तारों पर हुए हिम-बिन्दु बन्दनवार।<br><br>वात अणु अणु में समा रचने लगी विस्तार!
स्वर्ण-शर से साध के<br>अब न लौटाने कहोघन ने लिया उर बेधअभिशाप की वह पीर,<br>स्वप्न-विहगों को हुआ<br>बन चुकी स्पन्दन ह्रदय मेंयह क्षितिज मूक निषेधवह नयन में नीर!<br>क्षण चले करने क्षणों का पुलक से श्रृंगारअमरता उसमें मनाती है मरण-त्योहार!<br><br>
शून्य के निश्वास ने दी<br>तूलिका सी फर,<br>ज्वार शत शत रंग के<br>फैले धरा को घेर!<br>वात अणु अणु में समा रचने लगी विस्तार!<br><br> अब न लौटाने कहो<br>अभिशाप की वह पीर,<br>बन चुकी स्पन्दन ह्रदय में<br>वह नयन में नीर!<br>अमरता उसमें मनाती है मरण-त्योहार!<br><br> छाँह में उसकी गये आ<br>शूल फूल समीप,<br>ज्वाल का मोती सँभाले<br>मोम की यह सीप<br>सृजन के शत दीप थामे प्रलय दीपाधार!<br><br/poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
3,286
edits