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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''सूत्रधारअकाल-दर्शन<br>&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[विमल कुमारधूमिल]]</td>
</tr>
</table>
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
मैं इन दिनों खेले जा रहेभूख कौन उपजाता है :एक अजीबोग़रीब नाटक का सूत्रधार हूँअभी नेपथ्य से ही बोल रहा हूँकि लोकतन्त्र में किसी बात पर बहस हो सकती वह इरादा जो तरह देता हैइस बात या वह घृणा जो आँखों पर भी बहस हो सकती हैपट्टी बाँधकरकि हत्या करना कितना ज़रूरी हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है एक आदमी कीमानवता की रक्षा के लिएकि बलात्कार से महिलाएँ कितनी जागरूक होती हैंअपने अधिकारों के प्रति?
इस नाटक के हर सीन के बादउस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तरएक संवाददाता सम्मेलन होगा, जो क्षेपक है,नहीं दिया।उसमें बताया जाएगाकि इन बहसों के नतीजे क्या निकले हैंकि आख़िर उसने गलियों और सड़कों और घरों में कौन सा संकल्प पारित हुआ हैअगले दिन फिर अख़बारों में उनकी ख़बर होगीमुखपृष्ठ परटी०वी० पर फिर चेहरा नज़र आएगा उनकाचारों तरफ़ कैमरों से घिरी होगी उनकी कायाफिर एक विधेयक पेश होगा संशोधन के साथएक प्राहिकरण बनेगाबाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा कियाऔर कुछ नहीं हुआ तो कम से कम अध्यक्ष का चयन ज़रूर होगाहँसने लगा।
मैं इस लम्बे और उबाऊ नाटक का सूत्रधार हूँमैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –लचर कथानक और ढीले सम्वादों से बोर हो चुका हूँ'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'लेकिन क्या करूँ अब मंच पर आकर बोल रहा हूँकि लोकतन्त्र में कोई इससे वे भी जनप्रतिनिधी कह सकता हैसहमत हैंकि भूखी जनता को पहले अपने राष्ट्रप्रेम का परिचय देना चाहिएकि नंगी जनता को समझना चाहिएकि बम ज़्यादा ज़रूरी है अंग ढँकने सेकि बच्चों को भी जान लेना चाहिएयुध से ही उनका भविष्य संवर सकता हैकि औरतों को भी मान लेना चाहिएकि सौन्दर्य में ही छिपी हुई है उनकी आज़ादीमध्यांतर में इस बात जो हमारी हालत पर विशेष चर्चा होगीकि आज़ाई तरस खाकर, खाने के पचास साल बादलिएलुटेरे ही एश का निर्माण कर सकेंगेरसद देते हैं।क्योंकि उनमें अद्भुत्त नेतृत्त्व-क्षमता उनका कहना हैकि मक्कार ही ईमानदारी की भाशःआ सिखाएंगेबच्चेक्योंकि विकास के लिए धूर्तता बहुत ज़रूरी हैकि अहंकारी ही ज्ञान का प्रचार करेंगेक्योंकि विनम्रता हमें बसन्त बुनने में तो छिपी होती है मूर्खतामदद देते हैं।
मैं इस नाटक का सूत्रधार हूँलेकिन यही वे भूलते हैंदरअस्ल, पेड़ों पर निर्देर्शक का दबाव भी मेरे ऊपर बहुत हैबच्चे नहींलेकिन मुझे तो सच कहना है लेखक के अनुसारइसलिए सच कह रहा हूँकि नाटक के ख़त्म होने परहमारे अपराध फूलते हैंहर कलाकार मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उससे परिचय कराया जाऐगाउत्तरयह बताया जाऐगाकि जो व्यक्ति कभी मंच पर आया ही नहींवही मुख्य नायक था इस नाटक काकि जो शोर सुनाई दे दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा था आपको अभी तकवह दरअसल नाटक का संगीत थाफिर जल्दी से हाथ छुड़ाकरकि सभागार 'जनता के हित में जो अंधेरा छाया था' स्थानांतरितवह लाइटिंग के ही कमाल का नतीजा थाहो गया।
दर्शकोमैंने खुद को समझाया – यार! उस जगह खाली हाथ जाने से इस नाटक के अभी और शो होंगेतरहयह नाटक अगली सदी में भीक्यों झिझकते हो?इसी तरह हर शहर में खेला जाऐगाक्या तुम्हें किसी का सामना करना है?तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी कीसिर्फ़ पीठ देख सकते हो।
नाट्य-समीक्षको!और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों केसामने खड़ा हूँ औरअगर भारतीय रंगमंच उस मुहावरे को बचाना समझ गया हूँजो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा हैतो कुछ जिससे कुछ आप लोगों भूख मिट रही है, न मौसमबदल रहा है।लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को भी करना होगानंगा करते हुए)इस समय नाट्य लेखनपत्ते और छालखा रहे हैंमर रहे हैं,दानअभिनयकर रहे हैं।जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी सेहिस्सा ले रहे हैं औरअकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है। मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...उन्होंने मुझे टोक दिया है।अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम परअँगुली रखने से मना करते हैं।जिनका आधे से ज़्यादा शरीरभेड़ियों ने खा लिया हैवे इस जंगल की सराहना करते हैं –'भारतवर्ष नदियों का देश है।' बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।यह दूसरी बात है कि इस बारउन्हें पानी ने मारा है। मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।अनाज में छिपे उस आदमी की नीयतनहीं समझतेजो पूरे समुदाय सेअपनी गिज़ा वसूल करता है –कभी 'गाय' सेकभी 'हाथ' सेप्रस्तुति'यह सब ख़तरे कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँमैं उन्हें समझाता हूँ –यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा हैकि जिस उम्र में मेरी माँ का चेहराझुर्रियों की झोली बन गया हैउसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिलाके चेहरे परमेरी प्रेमिका के चेहरे-सालोच है। ले चुपचाप सुनते हैं।उनकी आँखों में विरक्ति है :पछतावा है;संकोच हैया क्या है कुछ पता नहीं चलता।वे इस कदर पस्त हैं : कि तटस्थ हैं।और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश मेंएकता युद्ध की और दयाअकाल की पूंजी है।क्रान्ति –यहाँ के असंग लोगों के लिएकिसी अबोध बच्चे के –हाथों की जूजी है।
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