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Kavita Kosh से
सोच रही है कब से
::बादल ओढ़े घाटी।
कितने तीखे अनुतापों को
आघातों को
सहते-सहते
जाने कैसे असह दर्द के बाद- ::बन गई होगी पत्थर
इस रसमय धरती की माटी।
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