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|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=सिंदूरी साँझ और ख़ामोश आदमी / सुदर्शन वशिष्ठ
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<poem>जब भी सोचना
अच्छा अच्छा सोचना।

तुम तैर रहे हो बर्फीले पर्वतों में
बाद्लों के रथ पर सवार
घूम रहे हो हरे भरे जंगलों में
टहर रहे हो ख़ामोश झील के किनारे
ढलान की न सोचना
थकान की न सोचना।

क्यों सोचते हो
गाड़ी में बैठते ही
अगले मोड़ पर हो जाएगा एक्सीडैंट
गंतव्य पर
स्वागत में होंगे फूलों के हार
ढेर सा प्यार।

तुम सोचते हो
तुम्हारे साथी देंगे दगा
वे साथ चल सकते हैं तुम्हारे
अंत तक
तुम्हारी सन्तानें क्यों होंगी गुण्डा मवाली
बन सकते हैं वे चक्रवती सम्राट।

जब भी सोचना
अच्छा अच्छा सोचना
कच्चा कच्चा नहीं
पक्का पक्का सोचना।
दूसरों के लिए सुख बाँटना
बाँटना बच्चों के लिए टॉफियाँ
बूढों के को लाठियाँ
अपनो को हँसी
परायों को नज़दीकियाँ
दुःख दुःख ले लेना
सुख सुख बाँटना।

ऊटपटाँग गंदा फंदा कभी मत सोचना
सोचना साफ सुथरा
रखना हमेशा तन साफ
तो मन भी साफ रखना।

सोचने पर नहीं कोई पाबंदी
न कोई टैक्स
तो मन खोल खोल कर सोचना
कँजूसी न करना
कुछ भी बाँटने में
सेर सेर नहीं सवा सेर बाँटना
मुट्ठी भर नहीं
ढेर ढेर बाँटना।
</poem>
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