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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=सिंदूरी साँझ और ख़ामोश आदमी / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>एक
सुनसान हो जाता
सर्दियों में शिमला
चले जाते घरों,मैदानों में
बच्चे,अभिभावक,अध्यापक
रह जाते यहाँ बूढ़े,बीमार नागरिक
जैसे अंग्रेज़ों के समय
रहते थे यहाँ बूढ़े
घर की याद सताए बीमार अंग्रेज़
सैलानी दहल जाते शिमला के नाम से।
लोग रख लेते घरों में
पूरी सर्दियों की लकड़ी,कोयला, मिट्टी का तेल
क्या पता कितनी बर्फ गिरे
बर्फ में नहीं खुलते दुकानों के फ़ट्टे
बिजली खो जाती तारों में
पानी नालियों में
भई कौन रहे सर्दियों में शिमला
बस कुछ बूढ़े अंग्रेज़
स्कूलों में मनाते बड़ा दिन
चर्च की घंटियों से चौकन्ने हो उड़ते
बादलों भरे आसमान में कोए।
दो
सैलानी दौड़ रहे पागलों की तरह
माल रोड़ से रिज मैदान
बदहवास है सब कोई न कोई नशा किये हैं
कहीं बज रहा ऊँचा संगीत
कहीं हो रहा नाच बोतलें हाथों में लिए
कहीं आ गई नौबत हाथापाई की
कहीं गाली गलौच
बाँसुरी बजाने वाले पहाड़ी सिपाहियों
के हाथ में छड़ियाँ हैं
वे बन्दरों की तरह आँखें बन्द किये खड़े
जैसे कुछ देखा ही नहीं ।
ठसाठस भर गये सभी होटल
लोग घूम में इधर उधर परेशान
रात बारह बजे रिज पर नाचते
बर्फ नहीं गिरी
सड़्कों में बेतरतीब पार्क हैं गाड़ियाँ
जाम लगा है रात भी
सुबह के पहर कैसे और कहाँ जाएँ।
उतर गये हैं सारे नशे
होश फिर भी नहीं।
आज त्यौहार है 25 दिसम्बर
आज त्यौहार है 31 दिसम्बर।
सड़कों </poem>
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|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=सिंदूरी साँझ और ख़ामोश आदमी / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
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<poem>एक
सुनसान हो जाता
सर्दियों में शिमला
चले जाते घरों,मैदानों में
बच्चे,अभिभावक,अध्यापक
रह जाते यहाँ बूढ़े,बीमार नागरिक
जैसे अंग्रेज़ों के समय
रहते थे यहाँ बूढ़े
घर की याद सताए बीमार अंग्रेज़
सैलानी दहल जाते शिमला के नाम से।
लोग रख लेते घरों में
पूरी सर्दियों की लकड़ी,कोयला, मिट्टी का तेल
क्या पता कितनी बर्फ गिरे
बर्फ में नहीं खुलते दुकानों के फ़ट्टे
बिजली खो जाती तारों में
पानी नालियों में
भई कौन रहे सर्दियों में शिमला
बस कुछ बूढ़े अंग्रेज़
स्कूलों में मनाते बड़ा दिन
चर्च की घंटियों से चौकन्ने हो उड़ते
बादलों भरे आसमान में कोए।
दो
सैलानी दौड़ रहे पागलों की तरह
माल रोड़ से रिज मैदान
बदहवास है सब कोई न कोई नशा किये हैं
कहीं बज रहा ऊँचा संगीत
कहीं हो रहा नाच बोतलें हाथों में लिए
कहीं आ गई नौबत हाथापाई की
कहीं गाली गलौच
बाँसुरी बजाने वाले पहाड़ी सिपाहियों
के हाथ में छड़ियाँ हैं
वे बन्दरों की तरह आँखें बन्द किये खड़े
जैसे कुछ देखा ही नहीं ।
ठसाठस भर गये सभी होटल
लोग घूम में इधर उधर परेशान
रात बारह बजे रिज पर नाचते
बर्फ नहीं गिरी
सड़्कों में बेतरतीब पार्क हैं गाड़ियाँ
जाम लगा है रात भी
सुबह के पहर कैसे और कहाँ जाएँ।
उतर गये हैं सारे नशे
होश फिर भी नहीं।
आज त्यौहार है 25 दिसम्बर
आज त्यौहार है 31 दिसम्बर।
सड़कों </poem>