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|रचनाकार=हरकीरत हकीर
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 '''(२१ सितंबर २००८ मेरे लिए बहुत ही महत्‍वपूर्ण दिन था। आज मुझे इमरोज जी का नज्‍म नज़्म रुप में खतमिला। उसी खत का जवाब मैंने उन्‍हें अपनी इस नज्‍म नज़्म में दिया है...)'''
इमरोज़
जलते अक्षरों को
बरसों सीने से चिपकाये हम
कोरे का़गच कागज़ की सतरों को
शापमुक्‍त करती रहीं...
आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़
चुपचाप
अरथियों अर्थियों में सजती रहती...
इमरोज़
यह ख़त
उस पाक रूह से निकले अल्‍फाज़ हैं
जो महोब्‍बत मुहब्बत की खातिर
बरसों आग में तपी थी
आज तेरे इन लफ्‍जों के स्‍पर्श से
मैं रूह रुई सी हल्‍की हो गई हूँ
देख ,मैंने आसमां की ओर
बाँहें फैला दी हैं
''कवि, कलाकार 'हकी़र' नहीं होते,
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो,
शमां भी हो और रौशनी रोशनी भी''
तुम्‍हारे इन शब्‍दों ने आज मुझे
अर्थ दे दिया है
आसमान पर
न लिख सकी
कि जिंदगी ज़िंदगी सुख भी है
पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि जिंदगी ज़िंदगी सुख भी थी
हाँ इमरोज़!
लो आज मैं कहती हूँ
जिंदगी ज़िंदगी सुख भी थी …
</poem>
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