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न ख़ामोश रहना मेरे हम-सफ़ीरो!जब आवाज़ दूँ तुम भी आवाज़ देना॥ ग़ज़ल उसने छेडी़ मुझे साज़ देना।ज़रा उम्रे-रफ़्ता की आवाज़ देना॥  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=सफ़ी लखनवी}}<poem>   तालिबे-दीद पर आँचआए यह मंज़ूर नहीं।दिल में है वरना वो बिजली जो सरे-तूर नहीं॥ दिल से नज़दीक है, आँखों से भी कुछ दूर नहीं।मगर इस पर भी मुलाक़ात उन्हें मंज़ूर नहीं॥ छेड़ दे साज़े-अनलहक़ जो दुबारा सरे-दार।बज़्मे-रिन्दाँ में अब ऐसा कोई मन्सूर नहीं॥ हमको परवाना-ओ-बुलबुल की रक़ाबत से ग़रज़?गुल में वह रंग नहीं, शमअ़ में वो नूर नहीं॥ कभी ‘कैसे हो सफ़ी?’ पूछ तो लेता कोई।दिल-दही का मगर इस शहर में दस्तूर नहीं॥  </poem>