{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अहमद फ़राज़|संग्रह= }}{{KKCatGhazal}}<poem>कल हमने बज्में यार मैं में क्या -क्या शराब पी
सहरा की तश्नगी थी सो दरिया शराब पी
अपनों ने तज दिया हैं तो गैरों मैं में जा के बैठ
ऐ खानमा खराब न तनहा शराब पी
तू हमसफ़र नहीं हैं तो क्या सैर-ऐ-गुलिस्तान
तू हुम्सबू नहीं हैं तो फिर क्या शराब पी
दो सूरतें हैं यारों दर्द-ऐ-फिराक की
या उस के ग़म में टूट के रो, या शराब पी
या उस के ग़म मैं टूट के रो, या शराब पी एक मेहरबा इक मेहरबां बुजुर्ग ने ये मशवरा दिया
दुःख का कोई इलाज़ नहीं जा शराब पी
बादल गरज रहा था इधर, मोह्तासीब उधर
फिर जब तलक ये उकदा, न सुलझा शराब पी
ऐ इक तू के तेरे दर पे हैं रिन्दों के जमघटे
इक रोज़ इस फ़कीर के घर आ, शराब पी
दो जाम उनके नाम भी ऐ-पीरे-मैकदा
जिन रफ्तागा रफ़्तगाँ के साथ हमेशा शराब पी
कल हमसे अपना यार ख़फा हो गया "फ़राज़"
शायद के हमने हद से ज्यादा शराब पी
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