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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेंद्र मिश्र }} {{KKCatNavgeet}}<poem>आंख आँख क्या कह रही है, सुनो-
अश्रु को एक दर्पण न दो।
एक टूटा हुआ मन न दो।
तुम जुडों जोड़ो शृंखला की कडीकड़ीधूप की का यह घडी घड़ी पर्व है
हर किरन को चरागाह की
रागिनी पर बडा गर्व है
एक गरिमा भरो गीत में
सृष्टि हो जाए महिमामयी
नेह की बांह बाँह पर सिर धरो
आज के ये निमिष निर्णयी
आंचलिक प्यास हो जो, कहो
साथ आओ, उमड उमड़ कर बहोजिंदगी ज़िन्दगी की नयन-कोर में
डबडबाया समर्पण न दो।
जो दिवस सूर्य से दीप्त हो
चंद्रमा का नहीं वश वहांवहाँजिस गगन पर मढी मढ़ी धूप होव्यर्थ होती अमावस वहांवहाँ
गीत है जो, सुनो, झूम लो
सिर्फ मुखडा पढोमुखड़ा पढ़ो, चूम लो
तैरने दो समय की नदी
डूबने का निमंत्रण न दो।
 
</poem>
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