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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=वीरेंद्र मिश्र}}{{KKCatNavgeet}}<poem>
फूल गिराते होंगे, हिला स्वप्न डाली
होगे तुम ग्रह-ग्रह के रत्न, अंशुमाली
रासों की रात ओढ़ पीताम्बर चीवर
होगे तुम शब्दों के मीठे वंशीधर
ओ रे ओ अभिमानी गीत, महलवाले!
होगे तुम उत्सव की चहल-पहलवाले
तुम जिन पर मसनद सिंहासन का जादू
होगे तुम दर्शन के मनमौजी साधू
सिर पर धर गठरी में मुरदा-सी पीढ़ी
होगे जब चढ़ते तुम सीढ़ी पर सीढ़ी
किसी महाभारत के आधुनिक पुजारी!
होगे तुम द्रोण, मठाधीश, धनुर्धारी
’हम प्रभातफेरी की हैं मरण-प्रभाती’
दिशा-दिशा बिखरी हैं तिमिर-मिली किरनें
अहरह वक्तव्य दिया गांव गाँव ने, नगर ने— ::चलनी से ज्योति अभी तक छनी नहीं है</poem>