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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>छोटी लकड़ी बीनती
पहाड़ी पर
बनक्शे के फूल।

बनक्शा
क्भी हुआ करता था दवाई
है अब अनजान पौधा
कमेटी के लिए घास
सैलानियों के लिए हरियाली
जैसे अनजान बन गये
तुलसी के बिरवे
जिसमें रोज़ शाम जलते थे
आस्था के दिये।

उगते हैं अब जंगली कैकटस
घरों के गमलों में
गुलाब जंगल में
उगते हैं ड्राईंग रूम में
बौने पेड़ बरगद के
पीपल जंगल में
शहर जंगल और जंगल शहर हो गया है।
छोटी हो नहीं जानती
कैसे हुआ ये उलट-फेर
तुम्हारा बाप जो सोया अभी
खुमारी में
कभी जगेगा भी सूरज से पहले!

छोटी लड़की
क्यों बीनती हो बनक्शे के फूल!
फैंक दिए दुकानदारों ने
रक्तजोत,शिलाजीत,कूट पतीश
के पुराने डिब्बे
बेअसर हो गए आजवाईन के काढ़े
छोटी लड़की
कोई नहीं खरीदेगा
तुम्हारे बनक्शे के फूल।
</poem>
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