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पिता का घर / सुदर्शन वशिष्ठ

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कभी सोचा न था
पिता का घर,नहीं होगा मेरा घर।


दादा का घर पिता का घर था
उस घर की छत पड़ॆ थे पूरे के पूरे बाँस
अनघड़ बासों पर थे बिछे भोज पत्र
लाए हुए न जाने किन पहाड़ों से।

दीवरों पर टंगे थे सीताराम हनुमान
औष्ण बलिभद्र
जिनके पीछे हर साल बनाती थीं
चिड़ियां घोंसले अपने
दादा,पिता,चाचा,दादी,माँ,चाचियाँ
बुआ और भी न जाने कौन-कौन
गोबर लिए कमरे के
हर कोने में बनाते थे घोंसले अपने
हर घोंसले के तिनके
एक दूसरे से रहते थे सदा गुंथे हुए।

दिन भर दूर-दूर चोग चुग कर लौटते थे सभी घर
तब अणगिणत बच्चे भर उठते थे किलकारियाँ
खुल जाती थी चोंच चोंच
चूल्हे के आसपास पटड़ों पर बैठ खाना खाते हुए
सुनाते थे कई किस्से कहानियाँ


कच्चा होते हुए भी कितना पक्का था घर!
छोटा होते हुए कितना बड़ा था घर!

पिता ने बसाया एक घर अपना
जिसमें हम बच्चे रहे कुछ दिन
जिसकी छत्त थी सीमेंटी
नहीं थी कोई दहलीज़
नहीं टँग सकता था कोई चित्र ।
नहीं लगती थी कील
नहीं बना सकती थी घोंसला कोई बाहरी चिड़िया ।
दादा ने नहीं रखा रखा कभी पाँव
ठण्दे पर्श पर
नहीं आई दादी,कोई रिश्तेदार मेहमान।

मजबूत होते हुए भी कितना कमज़ोर था घर!
बड़ा होते हुए भी कितना छोटा था घर!

दादा के पिछवाड़े
जो उगते थे आम कचनार के पेड़
आँगन में खड़े थे नींबू लुकाठ
पिता के घर बोने हो गमलों मे समाए
एक बेल जो झाँकना चाहती थी
गमले से उचककर खोड़की में
सूख जाती ऊपर पहुँचने से पहले
माँ उगाना चाहती थी
कंकरीट की क्यारी में एक फूल
पिता बसाना चाहते थे
ठाकुरों को शोकेस में

दादा का घर सबका घर था
पिता का घर पिता का घर है
मेरा नहीं।

मुझे आज अलग घर
बनाना और बसाना होगा
जो पता नहीं होगा कैसा
और होगा किसका।
</poem>
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