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मेला-दो / सुदर्शन वशिष्ठ

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इस साल से शहर में भी
लगा है मेला
दूर दूर से नट आए हैं
नौटंकी आई है।

नाचना शुरू कर देते हैं सब
सुबह ही और नाचते हैं निरंतर
दूसरों को रिझाने की कोशिश में
मुँह
हँसने की मुद्रा में खुले रहते हैं
जिन्हें मंच के पीछे जाकर
किया जाता है यथास्थिति
दोनो हाथों पकड़कर।

विवश और लाचार कर्मचारी
अनमने से घूम रहे हैं ड्यूटी पर
दो ही हाथ टमक पर मार
थक जाता है मँगलू
शाम जाती बार उठाया
टमक का बोझ।

शाम को जब थके हारे
लौटते हैं शिविर मजदूर कलाकार
चूर चूर हो जाता है तन-मन।

मजदूरी के कर
जुटाए तो जा सकते सकते हैं
नाचने की वर्दी पहने आदिम आदमी
क्या मन भी मिलाए जा सकते हैं!</poem>
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