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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>बहुत बंजर होती है
यथार्थ की धरती
उगते हैं पेड़ पौधे फल-फूल
कल्पना लोक में
आदमी बन जाता है
निर्णायक अपनी नियति का
कभी राजा
तो कभी चक्रवती सम्राट
करता है सब वही
जो भाता है।


नहीं होता
कुछ नहीं होता यथार्थ की धरती में
यथार्थ की धरती
छीन लेती है सब सुख सुविधा
सूखा देती है फूल और पत्तियाँ
नहीं उगती कोई कोंपल कल्पना से
यथार्थ की धरती
बाँझ होती है सदा।
</poem>
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