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रवि हुआ अस्त<br>
ज्योति के पत्र पर लिखा<br>
अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर।समर<br>
आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,<br>
शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,<br>
वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,<br>
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,<br>
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्ल्धीरभल्लधीर,<br>
सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,<br>
यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष<br>
देखते राम को का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।<br><br>
है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,<br>
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत<br>
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन<br>
विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन<br>नयनों का -नयनों से गोपन -प्रिय सम्भाषण,-<br>पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान -पतन,-<br>काँपते हुए किसलय, -झरते पराग -समुदय,-<br>गाते खग नवजीवन -नव-जीवन-परिचय, -तरू मलय -वलय,-<br>ज्योतिः प्रपात ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय, -ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-<br>
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।<br><br>
सिहरा तन, क्षण -भर भूला मन, लहरा समस्त,<br>
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,<br>
फूटी स्मिति सीता ध्यानलीन ध्यान-लीन राम के अधर,<br>फिर विश्व -विजय -भावना हृदय में आयी भर,<br>वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-<br>
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,<br>
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,<br>
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर,;<br><br>
फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो<br>
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,<br>
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,<br>
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन,;<br>
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,<br>
खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन,;<br>
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,<br>
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।<br><br>
बैठे मारुति देखते रामचरणारविन्द,राम-चरणारविन्द-<br>युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुणगण गुण-गण-अनिन्द्य,;<br>साधना -मध्य भी साम्य -वाम -कर दक्षिणपद,<br>दक्षिण करतल -कर-तल पर वाम चरण, कपिवर, गद् गद्<br>पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,<br>जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।<br>
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,<br>
देखा कवि कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल।तारादल;<br>ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-<br>सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ,;<br>टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,<br>
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल<br>
बैठे वे वहीं कमल -लोचन, पर सजल नयन,<br>व्याकुल, -व्याकुल कुछ चिर -प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।<br>
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,<br>
उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,<br>हो श्वसित पवन - उनचास , पिता पक्ष से तुमुल<br>
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,<br>
शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,<br>जलराशि राशिजल जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,<br>तोड़ता बन्ध -प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष<br>दिग्विजय -अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,<br>शत -वायु वेगबल-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,<br>
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव<br>
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश<br>
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।<br>
रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,<br>यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार,;<br>उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्धपूजितदशस्कन्ध-पूजित,<br>इस ओर रूद्रवन्दन रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,<br>
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,<br>
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण -भर चंचल,<br>
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर<br>
बोले - "सम्वरोसम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर<br>यह, -नहीं हुआ श्रृंगार युग्मगत-युग्म-गत, महावीर, महावीर।<br>अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,<br>चिर ब्रह्मचर्यरत - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र, धन्य,<br>मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,<br>लीलासहचर, दिव्य्भावधरदिव्यभावधर, इन पर प्रहार<br>करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार,;<br>
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,<br>
झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"<br><br> 
कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय<br>
सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।<br>
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