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{{KKRachna
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
|संग्रह=गुले-नग़मा / फ़िराक़ गोरखपुरी
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<poem>
वो आँख ज़बान हो गई है
हर बज़्म की जान हो गई है।

आँखें पड़ती है मयकदों की, वो आँख जवान हो गयी है।

आईना दिखा दिया ये किसने, दुनिया हैरान हो गयी है।

उस नरगिसे-नाज़ में थी जो बात, शाएर की ज़बान हो गयी है।

अब तो तेरी हर निगाहे-काफ़िर, ईमान की जान हो गयी है।

तरग़ीबे-गुनाह<ref>पाप की ओर उकसाना</ref> लहज़ह-लहज़ह,<ref>क्षण-प्रतिक्षण</ref> अब रात जवान हो गयी है।

तौफ़ीके - नज़र से मुश्किले-ज़ीस्त, कितनी आसान हो गयी है।


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</poem>
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