</poem>'''{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कैलाश वाजपेयी |संग्रह= }}<poem>ऐसा कुछ भी नहीं जिंदगी में कि हर जानेवाली अर्थी पर रोया जाए |
काँटों बिच उगी डाली पर कल
वो कब उगी खिली कब मुरझाई
याद न ये रख पायी पाई फुलवारी |
ओ समाधि पर धूप-धुआँ सुलगाने वाले सुन !
साँप नहीं मरता अपने विष से
फिर मन कि की पीड़ाओं का डर क्या ,
जब धरती पर ही सोना है तो
ऐसा कुछ भी नहीं बंधनों में कि सारी उम्र किसी का भी होया जाए |
सूरज कि की सोनिल शहतीरों ने
साथ दिया कब अन्धी आँखों का ,
जब अंगुलियाँ ही बेदम हों तो
दोष भला फिर क्या सूराखों सुराखों का |
अपनी कमजोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन !
ऐसा कुछ भी नहीं कल्पना में कि भूखे रहकर फूलों पर सोया जाए |'''</poem>
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