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|रचनाकार=अवतार एनगिल
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<poem>आदमियों में घिरा आदमी
मुझसे नज़र मिलाता है
मुझसे नज़र चुराता है
मगर यह भूल जाता है
कि जानती है औरत
आदमी की नज़र
आंख की चमक के पीछे
सिर्फ भूख होती है
और हर हसीन औरत
उसकी कल्पना में
कपड़े उतारकर
उसके साथ सोती है

आदमियों में घिरा
यह मूर्ख आदमी
दूसरी औरत के अभिवादन से
कितना खुश होता है
और उम्मीद की ज़मीन पर
कितने बहाने बोता है

यूं तो अक्सर
यह आदमी
सभ्य मुखौटा ओढ़कर
मेरे कपड़ों के रंगों के चयन की
प्रशंसा करता है
पर जानती हूं खूब
कि बीवी से
कितना डरता है

आदमियों में घिरा आदमी
सभ्यता पीता हि
सभ्यता खाता है
और भीतर के जंगल को
सफाई से छिप जाता है

कभी-कभार
किसी मोड़ पर अचानक
आंख मिल जाये तो
हम हैलो-हैलो बुलाते हैं
और
औपचारिक बातचीत के बाद
अपना-अपना
अस्तित्व ओढकर
अपने-अपने घर
लौट जाते हैं।
</poem>
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