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|संग्रह=सूर्य से सूर्य तक / अवतार एनगिल
}}
<poem>रचना यहाँ टाइप करेंलड़ाई के बादछुट्टी पर घर चले सिपाही नेदेखा खिडकी के शीशे में आई एक सुरंगजल उठे डिब्बे के छोटे बल्बयात्रियों के अपरिचित चेहरेदर्पण के माहौल की उत्सुकता दर्पण बने कांच मेंखुद को देखता है सिपाहीबोलती है धुंधली परछाईंघिर आई है आंखों के नीचेअनुभव की झूर्री ऊँघता है पलकों के पलने मेंथका हुआ युद्ध आग बरसाने वालीउसकी कठोर उंगलियों नेमनी-ऑर्डर की वापस आई रसीद को भी तो लपेटा हैसुरंग पार पहुंचते हीजगमगा उठते हैं ब्रास के लाल फूल सरसराते हैंपरिवर्तित अर्थ गभित गहरे हरे पत्तेघिरता है धीरे-धीरेजनवरी का जमता अंधेरासिपाही बहुत उदास है।</poem>