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{{KKRachna
|रचनाकार=अवतार एनगिल
|संग्रह=सूर्य से सूर्य तक / अवतार एनगिल
}}
<poem>आज सुबह
हमारी रसोई में
ख़ाली बर्तन खटके
उठे पटके

गुस्से के अट्ठाईस दिन पीकर
पत्नि ने दी झिड़की
तो खुल गई खट से
पड़ोसन की खिड़की

पहली तारीख की प्रतीक्षा में

हरहराया
मेरे आर्थिक भेदों का किला
नये सिरे से चला
शिकायतो का सिलसिला

कुनमुनाया पेट में
रात का भात
बिग़ड़ गई बात
दोनों बच्चों की
तीसरी लड़ाई
रसोई से चलकर
गली तक आई
तब खुले
मेरी असफलताओं के घाव
और
प्राप्तियों के सच ने
प्रयासों के झूठ का मुंह चिढ़ाया
तो
मन का कवि बौराया

ऐसे में
हाथ से फिसले नोट की परछाई ने
कमरे के मैले मेज़पोश को
जर्जर दुर्ग का रूप दिया
तो खण्डित-म्यान-सा-बटुआ उठा
एक सिपाही
किले के द्वार पर आकर रुक गया
सैल्यूट किया और झुक गया
खण्डित म्यान बाला सिपाही
/poem>
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