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{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=अंगारों पर नंगे पाँव / माधव कौशिक
}}
<poem>जिस दिन सूरज बदला लेगा ख़ौफ़नाक अंधियारों से
उस दिन चीख़ सुनाई देगी सत्ता के गलियारों से ।

सहमी हुई सुबह ने पूछा गलियों से,बाज़ारों से
किसने किसका क़त्ल किया है तेज़ धार हथियारों से ।

छूने भर की देर नहीं, यह गुलशन भी जल जाएगा
शबनम को रोको मत उलझे बिना वजह अंगअरों से

इतिहासों को लिखने वाल क़लम मयस्सर नहीं अगर
लिखने वाले लिख देते हैं लोहे के औज़ारों से ।

आंगन-ड्योढ़ी बेशक रूठें,छत चाहे अबबोल रहे
बुनियादों की मगर दुश्मनी क्यों होगी दीवारों से ।</poem>
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