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मना करूंगा / माधव कौशिक

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<poem>मना करूंगा मगर बार-बार लिक्खेगा
हमारी जीत के बदले में हार लिक्खेगा ।

कहीं नसीब है कांटों को सेज फूलों की
कहीं गुलाब की क़िस्मत में ख़ार लिक्खेगा ।

धधकती आग में बस्ती तो जल गई है
कोई बताए क्या नामा-निगार लिक्खेगा ।

सलीब यूं तो बहुत से उठाए फिरते हैं
मगर मसीह के हिस्से में द्वार लिक्खेगा ।

सिवाय सच के बता और क्या कहा मैंने
ज़माना फिर भी मुझे गुनाहगार लिक्खेगा ।

इसी उम्मीद पर बैठा हुआ है बरसों से
वो अगली नज़्म बड़ी शानदार लिक्खेगा ।

मिलन के शोख़ उजालों को बांटकर सबको
मेरी निगाह में बस इंतज़ार लिक्खेगा ।</poem>
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