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18:56, 18 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्राण शर्मा
|संग्रह=सुराही / प्राण शर्मा
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<poem>
१११
इक स्वर में बोले मस्ताने
हम हैं साक़ी के दीवाने
लाख बुरा कह ले उपदेशक
हमको प्यारे हैं मयखाने
११२
मधुशाला के दर जब खोले
एक बराबर पीने सबको तोले
कौन करे ’ना’ मदिरा को अब
मधुबाला पीने को बोले
११३
मधुमय जीवन जीते-जीते
घाव हृदय के सीते-सीते
प्यास बढ़ा बैठे हैं मन की
थोड़ी – थोड़ी पीते-पीते
११४
गीत सुरा का गाता होगा
मधु से मन बहलाता होगा
’प्राण’ किसीके घर में बैठा
पीता और पिलाता होगा
११५
जीवन-नैया खेते-खेते
वक़्त तुम्हीं को देते-देते
अब तक ज़िंदा हूँ मैं साक़ी
नाम तुम्हारा लेते-लेते
११६
सावन ने जब ली अंगड़ाई
मस्त घटा जब मन में छाई
मत पूछो रिंदों ने क्या
मयखाने में धूम मचाई
११७
मस्ती की बारिश लाती है
सोंधी ख़ुशबू बिखराती है
जेठ महीने में ए प्यारे
मदिरा ठंडक पहुँचाती है
११८
पगले, सौन क्या साक़ी बोले
भेद गहन मदिरा के घोले
वह पाय जाये जीते जी सुख
जो मन को मधुरस से घोले
११९
चाक जिगर का सी लेता है
मदमस्ती में जी लेता है
मदिरा से परहेज़ नहीं है
जब जी चाहे पी लेता है
१२०
सबसे प्यारा जाम सुरा का
सबसे न्यारा नाम सुरा का
दुनिया भरक सब धामों से
सबसे प्यारा धाम सुरा का</poem>