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181-190 मुक्तक / प्राण शर्मा

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१८१
मधु बुरी उपदेश में गाते हैं सब
मैं कहूँ छुप-छुप के पी आते हैं सब
पी के देखी मधु कभी पहले न हो
खामियाँ कैसे बता पाते हैं सब
१८२
देवता था वो कोई मेरे जनाब
या वो कोई आदमी था लाजवाब
इक अनोखी चीज़ थी उसने रची
नाम जिसको लोग देते हैं शराब
१८३
जब चखोगे दोस्त तुम थोड़ी शराब
झूम जाओगे घटाओं से से जनाब
तुम पुकार उट्ठोगे मय की मस्ती में
साकिया, लाता--पिलाता जा शराब
१८४
पीजिये मुख बाधकों से मोड़ कर
और उपदेशक से नाता तोड़ कर
ज़िंदगी वरदान सी बन जाएगी
पीजिये साक़ी से नाता जोड़ कर
१८५
खोल कर आँखें चलो मेरे जनाब
आज कल लोगों ने पहने है नकाब
होश में रहना बड़ा है लाजमी
दोस्तों, थोड़ी पियो या बेहिसाब
१८६
बेतुका हर गीत गाना छोड़ दो
शोर लोगों में मचाना छोड़ दो
गालियाँ देने से अच्छा है यही
सोम रस पीना- पिलाना छोड़ दो
१८७
मन में हल्की- हल्की मस्ती छा गयी
और मदिरा पीने को तरसा गयी
तू सुराही पर सुराही दे लुटा
आज कुछ ऐसी ही जी में आ गयी
१८८
मधु बिना कैसी अरस है ज़िंदगी
मधु बिना इसमें नहीं कुछ दिलकशी
छोड़ दूँ मधु, मैं नहीं बिल्कुल नहीं
बात उपदेशक से मैंने यह कही
१८९
जाने क्या जादू भरा है हाला में
कैसा आकर्षण सा है मधुबाला
अपने मानस की व्यथाएँ भूल कर
मैं जो बैठा रहता हूँ मधुशाला में
१९०
ओस भीगी सुबह सी धोई हुई
सौम्य बच्चे की तरह सोयी हुई
लग रही है कितनी सुंदर आज मधु
मद्यपों की याद में खोयी हुई</poem>
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