भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना भाटिया |संग्रह= }} <poem>आज का जन्म पैदा होते ह...
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रंजना भाटिया
|संग्रह=
}}
<poem>आज का जन्म
पैदा होते ही
माँ के सीने से लिपटा
पर उसके दूध से दूर
बोतल और बाल आहार पर पलता
खोल के नन्ही आंखें
बिटर-बिटर दुनिया को तकता
बनूँगा इस आहार पर ही
ताकतवर
हगीज़ पहन कर भी
ख़ूब है हँसता
आज का बचपन
डगमगाते कदमो से
सुरज के संग खोल के आंखें
हाथ थाम के चलने की जगह
पेंसिल की नोक घिसता
नर्सरी कविता को
बिना समझे
अंग्रेजी में रटता
जीत लूँगा इस दुनिया को
यही सपना बचपन से पलता
माँ-बाप की अभिलाषा को
अपने जीवन का सच समझता
आज का टीनएजर
हैरी पॉटर के कारनामों में गुम
एक नई दुनिया बुनता, रचता
एम टी वी, एकता कपूर की कहानी में
मटकता ,भटकता .बहकता
जीवन का सत्य तलाश करता
या देख के रोज़ नई विज्ञान की बातें
एक दिन करुंगा में भी कुछ
यह वादा ख़ुद से करता
देख सुनीता कल्पना को
चाँद पर रोज़ सपने में उतरता
आज का युवा
आक्रोश बेरोजगारी
और लाचारी
इन सब से तंग आ कर
बसे फूंकता नारे लगता
कुछ नही रखा यहाँ
विदेशी नौकरी
करके अपना जीवन
कॉल सेंटर कल्चर
अपनाता
आज का बुढापा
अकेली आंखो में सपने प्रवासी
जिन्दगी में है बस एक उदासी
अकेले कब तक बच्चो की राह निहारे
हर पल एक डर, और मौत भी नही आती…</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=रंजना भाटिया
|संग्रह=
}}
<poem>आज का जन्म
पैदा होते ही
माँ के सीने से लिपटा
पर उसके दूध से दूर
बोतल और बाल आहार पर पलता
खोल के नन्ही आंखें
बिटर-बिटर दुनिया को तकता
बनूँगा इस आहार पर ही
ताकतवर
हगीज़ पहन कर भी
ख़ूब है हँसता
आज का बचपन
डगमगाते कदमो से
सुरज के संग खोल के आंखें
हाथ थाम के चलने की जगह
पेंसिल की नोक घिसता
नर्सरी कविता को
बिना समझे
अंग्रेजी में रटता
जीत लूँगा इस दुनिया को
यही सपना बचपन से पलता
माँ-बाप की अभिलाषा को
अपने जीवन का सच समझता
आज का टीनएजर
हैरी पॉटर के कारनामों में गुम
एक नई दुनिया बुनता, रचता
एम टी वी, एकता कपूर की कहानी में
मटकता ,भटकता .बहकता
जीवन का सत्य तलाश करता
या देख के रोज़ नई विज्ञान की बातें
एक दिन करुंगा में भी कुछ
यह वादा ख़ुद से करता
देख सुनीता कल्पना को
चाँद पर रोज़ सपने में उतरता
आज का युवा
आक्रोश बेरोजगारी
और लाचारी
इन सब से तंग आ कर
बसे फूंकता नारे लगता
कुछ नही रखा यहाँ
विदेशी नौकरी
करके अपना जीवन
कॉल सेंटर कल्चर
अपनाता
आज का बुढापा
अकेली आंखो में सपने प्रवासी
जिन्दगी में है बस एक उदासी
अकेले कब तक बच्चो की राह निहारे
हर पल एक डर, और मौत भी नही आती…</poem>