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00:32, 30 सितम्बर 2009 '''तुम कौन थे भगतसिंह?'''<br />
मकडियों नें हर कोने को सिल दिया है<br />
उलटे लटके चमगादड<br />
देख रहें हैं<br />
कैसे सिर के बल चलता आदमी<br />
भूल गया है अपनी ज़मीन<br />
दीवारों पर की सीलन का<br />
फफूंद की आबादी को<br />
दावत पर आमंत्रण है<br />
दरवाज़ों पर दीमक की फौज़<br />
फहराती है आज़ादी का परचम<br />
दाहिने-बांयें थम...<br />
मैडम का जनमदिन है<br />
जनपथों के ट्रैफिक जाम है<br />
साहब का मरणदिन है<br />
रेलडिब्बे के ट्वायलेट तक में लेट कर<br />
आदमी की खाल पहने सूअर<br />
बढे आते हैं रैली को<br />
थैली भर राशन उठायें<br />
कि दिहाडी भी है, मुफ्त की गाडी भी है<br />
देसी और ताडी भी है..<br />
और तुम भगतसिंह?<br />
पागल कहीं के<br />
इस अह्सान फरामोश देश के लिये<br />
"आत्म हत्या” कर ली?<br />
अंग्रेजी जोंक जब यह देश छोड कर गयी<br />
तो कफन खसोंट काबिज हो गये<br />
अब तो कुछ मौतें सरकारी पर्व हैं<br />
जिनके बेटों पोतों को विरासत में कुर्सियाँ मिली हैं<br />
निपूते तुम! किसको क्या दे सके?<br />
फाँसी पर लटक कर जिस जड को उखाडने का<br />
दिवा-स्पप्न था तुम्हारा<br />
वह अमरबेल हो गयी है<br />
आज 23 मार्च है...<br />
आज किसी बाग में फूल नहीं खिलते<br />
कि एक सरकारी माला गुंथ सके<br />
मीडिया को आज भी<br />
किसी बलात्कार का<br />
लाईव और एक्सक्लूसिव<br />
खुलासा करना है<br />
सारे संतरी मंत्री की ड्यूटी पर हैं<br />
और सारे मंत्री उसी भवन में इकट्ठे<br />
जूतमपैजार में व्यस्त हैं<br />
जिसके भीतर बम पटक कर तुम<br />
बहरों को सुनाना चाहते थे...<br />
बहरे अब अंधे भी हैं<br />
तुम इस राष्ट्र के पिता-भ्राता या सुत<br />
कुछ भी तो नहीं<br />
'''तुम इस अभागे देश के कौन थे भगतसिंह?<br />'''