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'''गाली नहीं है साहब'''<br />

वह बच्चा<br />
रो रो कर<br />
खामोशी को गहराता था<br />
टुकुर टुकुर आँखें तकती थी<br />
माँ की क्षत-विक्षत छाती को<br />
जिनसे रुधिर बहा आता था<br />
एक नदी बनता जाता था<br />

पत्थर की छाती फँटती थी,<br />
आसमान सिर झुका खडा था,<br />
और सायरन की आवाजें<br />
जबरन रौंद रही क्रंदन को।<br />
माँ उठो, माँ मुझे उठा लो,<br />
डरा हुआ हूँ, सीने में दुबका लो<br />
माँ भूख लगी है!!!....!!!!<br />

पुकार पुकारों में दब सी गयी<br />
बूटों की धप्प धप्प,<br />
एम्बुलेंस,<br />
खामोशी समेटती काली गाडी,<br />
मीडिया, कैमरा...<br />
आहिस्ता आहिस्ता बात अखबारों में दबती गयी<br />
बडे कलेजे का शहर है<br />
चूडियाँ पहने निकल पडता है<br />
रोज की तरह....अगली सुबह<br />

कोई नहीं जानता कि वह बच्चा,<br />
पूरी पूरी रात नहीं सोता है<br />
पूरे पूरे दिन रोता है<br />
उफ!! कि अब उसका रोना शोर है<br />
अब उसकी पुकार, चीख कही जाती है<br />
उसका अब अपना बिस्तर है,<br />
अपना ही तकिया है<br />
अपना वह नाथ है/अनाथ है<br />

वह सीख ही जायेगा जीना<br />
महीने या साल में<br />
हो जायेगा पतथर<br />

वह बच्चा किसी के लिये सवाल नहीं<br />
किसी की संवेदना का हिस्सा नहीं<br />
किसी की दुखती रग पर रखा हाँथ नहीं<br />
वह बच्चा एक आम घटना है<br />
बकरे को कटना है<br />
बम को फ़टना है<br />
खैर मना कर क्या होगा?<br />

बारूद सीने पर बाँध<br />
निकल पडते हैं नपुन्सक, कमबख्त!<br />
कचरे के ढेर में/ किसी बाजार/<br />
अस्पताल या ईस्कूल में<br />
फट पडेंगे ‘हरामखोर’....<br />

गाली नहीं है साहब<br />
अन्न इसी धरती का है<br />
और धरती भी माँ है<br />
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